Wednesday, December 15, 2010









यह चम्पा का पेड़ अगर मां होता ताप्ती तीरे ,
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे - धीरे .....।''
लेख - रामकिशोर पंवार ''रोंढ़ावाला ''
बचपन में मैने अपने ही गांव की आज जर्जर हो चुकी प्राथमिक पाठशाला में एक कविता पढ़ी थी कि ''वह कदम का पेड़ अगर मां होता यमुना तीरे , मैं भी उस पर बैठा कन्हैया बनता धीरे - धीरे '' । इस कविता को यदि मैं अपने परिवेश में कुछ सुधार कर उसे कुछ इस प्रकार से कहूँ कि ''यह चम्पा का पेड़ अगर मां होता ताप्ती तीरे , मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे - धीरे .....। '' यह संयोग ही है कि दो अलग - अलग मां की संताने यमुना और ताप्ती दोनो ही सूर्यपुत्री है। यम की बहन यमुना मथुरा में और शनिदेव की बहन ताप्ती बैतूल जिल में कलकल करती बहती चली जा रही है। जहां एक ओर वंदावन - मथुरा में वह कदम का पेड़ है वही दुसरी ओर ताप्ती तट से महज 12 किलो मीटर दूर मेरे गांव रोंढ़ा में भी यह चम्पा का पेड़ .... अफसोस सिर्फ इस बात का है कि मां ताप्ती मेरे घर के बाजू से नहीं बहती है यदि बहती तो मैं भी कदम के पेड़ की तरह इस चम्पा के पेड की डालियो पर बैठ कर बांसुरी बजाता और गांव की मेरे बचपन की गोपियो को मोहित करता ..... ऐसा न हो सका और न हो सकता क्योकि अब मेरी और चम्पा की उम्र भी काफी हो चुकी है। मेरा वजन बढ़ गया और चम्पा के पेड़ की डालिया भी संभव तह: मेरे इस भार को सहन कर भी न पाये। मेरी बचपन की शरारतो का गवाह बना चम्पा का पेड़ शायद हो सकता है कि मेरी इस बार की कोशिसो को माफ न कर सके। अब तो सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है लेकिन सच कहूं मेरा बचपन भी भगवान श्री कृष्ण की तरह शरारतो से गुजरा है। भगवान श्री कृष्ण की मां यशोदा तो उसे मूसल से बांधती थी लेकिन मेरी मां तो मेरी शरारतो से तंग आकर इतना पीटती थी कि मेरी आवाज सुन कर आसपास की महिलाये आज धमकती थी मुझे बचाने के लिए....। कोई कुछ भी कहे लेकिन जिसका बचपन यदि उसकी खटट्ी - मिठठ्ी यादो से नहीं जुड़ा है तो उसका जीवन नीरस जैसा है। गांव की अमराई की वह डाब -डुबेली हो या फिर गिल्ली - डण्डा सब खेलो में महारथ हासिल किये हम आज लंगड़ी घोड़ी का खेल भी शायद ढंग से न खेल पाये। आज के बच्चे सुबह से लेकर शाम तक पढ़ाई के बोझ से दबे जा रहे है। उन्हे शरारत करने का टाइम ही कहा मिलता। आज के इस दौर में इस नई पीढ़ी को समय मिलता उसे या तो कार्टुन फिल्में या फिर वीडियो - कंप्यूटर के गेम खा जाते है। मुझे ऐसा लगता है कि आज का बचपन कहीं खो गया है। मैं अपने बचपन की उस कविता को अपने बचपन की यादो से जोड़ रखा हँू। वह इसलिए क्योकि मेरा बचपन जिस पेड़ की डालियो पर उछल - कुद करते बीता वह चम्पा का पेड़  ही था। मेरी जन्म भूमि ग्राम रोंढ़ा के पैतृक मकान से लगा माता मंदिर का चबुतरा और उससे लगा वह चम्पा का पेड़ आज भी मेरे बचपन का साक्षी है। किसी शायर ने कहा है कि ''यादो को जिंदा रहने दो , क्या पता कब तुम्हे अपना वह बचपन याद दिला दे....'' इन्ही यादो से जुड़ा चम्पा का पेड़ आज पूरे बैतूल जिले में आस्था एवं श्रद्धा के साथ चमत्कार से जुड़ा एक सप्रमाण साक्ष्य है जिसे दुनिया की कोई भी कोर्ट झुठला नहीं सकती। एक बहुंत पुरानी फिल्म ''मेरा गांव - मेरा देश ''  ठीक उसी परिवेश में मेरा गांव और मेरा चम्पा का पेड़ बचपन की उन खटट्ी - मिठठ्ी यादो को बरबस याद दिलाता रहता है। नटखट बचपन की शरारते और मां की मार और फटकार से बचने के लिए माता मंदिर का आला मेरे छुपने और रात में सोने का स्थान था। अब मंदिर के पून:निमार्ण के बाद वह आला तो नहीं रहा पर उस पेड़ को सुरक्षित रखने का काम किया गया जो कि इस गांव की ही नही बल्कि पूरे बैतूल जिले की बेमिसाल धरोहर है। मुझे अच्छी तरह से याद है कि चैत मास की नवरात्री में जब गांव के महिलाये मातारानी को भेट देने के लिए अपने घरो से रोज पुड़ी और खीर लाती थी। उस समय शक्कर की जगह गुड का उपयोग होता था. कभी कुम्हड़े की तो कभी चावल की खीर को हम चढ़ाने के बाद खा जाते थे। माता रानी को चढ़ाये जाने वाले एक पैसा पांच पैसा से हमारा जेब खर्च चलता था। पहले हर पूजा के बाद नारीयल फोड़ कर पैसे चढ़ाये जाते थे लेकिन आज पैसा तो दूर लोग नारीयल तक चढ़ाने से बचने लगे है। पहले गांव में हर नवरात्री पर गोंदर हुआ करते थे जिसमें गोंदरे इस चम्पा के पेड़ के नीचे रात भर सोगा मोर जैसी दर्जनो कहानियां सुनाया करते थे। आज कहानी तो दूर आरती तक नहीं होने से मातारानी के वजूद में कोई फर्क नहीं आया लेकिन गांव कोई न काई मुसीबतो के चलते छटपटता मिल जायेगा। पहले हमारे गांव में हर घर में ढोलक - मंजीरे - खंजरी हुआ करती थी जिस की थाप पर पूरा गांव झुम उठता था। आज गांव में रामलीला की जगह रावण लीला और खंजरी की जगह खंजर निकलने लगे है। जिसकी गांव की पहचान इस गांव की रामलीला को हुआ करती थी आज वहीं सर्वोदयी गांव झगड़ालू गांवो की श्रेणी में गिना जाता है। कुल मिला कर मेरे पूरे गांव की पहचान धुमिल सी होती जा रही है। अब चम्पा के पेड़ से मैं अपने गांव की पहचान गांव के लोगो की आस्था एवं श्रद्धा से करवाने का बीड़ा उठा क अपनें गांव को पुन: जनमानस में एक अच्छे गांव के रूप में बनाने का भागीरथी प्रयास करने जा रहा हँू। मेरा प्रयास हो सकता है कि बीच में ही ठहर जाये लेकिन मैं इतना जरूर कर जाऊंगा कि लोग मेरे गांव की भी चर्चा कर सके।
                जहाँ एक ओर लोग सड़को और मकानो तथा दुकानो के लिए हरे भरे पेड़ो को बेरहमी से काटते चले आ रहे है वहीं पर बैतूल जिला मुख्यालय से महज़ मात्र 9 किलोमीटर की दूरी पर स्थित ग्राम रोंढ़ा में एक चम्पा का पेड लोगो की आस्था एवं विश्वास का केन्द्र बना हुआ है। ग्राम पंचायत रोंढा में जन्मे मेरे बाबू जी परम श्रद्धेय श्री दयाराम जी पंवार जो कि वन विभाग मे वनपाल के पद से सेवानिवृत होने के पूर्व ही अपने पुरखो के पैतृक मकान से लगे इस पेड की छांव के नीचे विराजमान गांव की चमत्कारी खेडापति माता मैया के मंदिर के पुन: निमार्ण के लिए अपनी उक्त भूमि को दान में दे चुके थे। माता रानी का खण्डहर में तब्दील हो चुके चबुतरे को मंदिर का परकोटा बनाने का पूरे परिवार का संकल्प काफी दिनो बाद मूर्त रूप में बदला।  इस चबुतरे पर लगे चम्पा के पेड की उम्र लगभग सौ साल से ऊपर बताई जाती है। यह मैं नहीं कहता मेरे ही गांव रोंढा की 74 वर्षिय श्रीमति गंगा बाई देवासे जो कि ठीक मंदिर के सामने बने मकान में रहती है वह बताती है कि वह जब ससुराल आई थी तब भी यह चम्पा का पेड इसी स्थान पर था। श्रीमति गंगा बाई के अनुसार लगभग सोलह साल की उम्र में उसकी शादी हुई थी। उस समय से इस पेड को इसी स्थान पर देखते चली आ रही है। नाती - पोतो की हो चुकी श्रीमति गंगा बाई के घर पर उस चम्पा के पेड का डालिया आज भी फूलो की बरसात करते चले आ रहे है। इसी ग्राम रोंढा में जन्मी श्रीमति गंगा बाई का जन्म गांव के ही दुसरे मोहल्ले में हुआ था। वह बताती है कि उसके घर के पास स्थित इस चम्पा के पेड के नीचे से कभी हाथी आया - जाया करते थे। लेकिन चम्पा के पेड की एक डाली इस तरह झुक गई कि आदमी अगर उस पेड के नीचे से निकलते समय झुक कर ना चले तो उसका सिर टकरा जाता है। गांव की सर्वाधिक लोकप्रिय बिजासन माई - माता मैया कहलाने वाली इस खेडापति माता माँ के चबुतरे पर लगे इस पेड को कुछ लोगो के द्धारा काटने का भी प्रयास किया लेकिन पूरे दिन भर तीन लोग मिल कर भी पेड की एक डाली काट नहीं पाये। चम्पा के पेड को काटने वालो में स्वंय के बेटे के भी शामिल होने की बात कहने वाली श्रीमति गंगा बाई देवासे के अनुसार शाम को पेड काटने वाले इस तरह बीमार हुये कि छै माह तक उनका इलाज चलता रहा। जब दवा -दारू से लोग ठीक नहीं हुये तब दुआ ही काम आती है अंत में गांव के उन तीनो युवको ने माता माँ से एवं उस चम्पा के पेड के पास माफी मांगी और पूजा - अर्चना की तब जाकर वे ठीक हो सके। गांव के एक ही परिवार के दो मुखिया इसी पेड की डाली को काटने के चक्कर में अकाल मौत के शिकार हो चुके है। ग्रामिणो की बात माने तो पता चलता है कि इस तरह की घटना के बाद से उस गली से चौपहिया वाहनो एवं बैलगाडी का निकलना तक बंद हो गया। गांव के लोग उस चम्पा के पेड के लिए गांव की गली को सड़क तक बनाने के लिए सहमत नहीं हो पा रहे है। गांव की उस गली को पक्की सीमेंट रोड बनाये जाने का प्रस्ताव पास होकर पडा है लेकिन सभी के सामने समस्या यह है कि उस पेड को आँच न आये और सड़क बन जाये। ग्राम पंचायत रोंढा के उस वार्ड के भूतपूर्व पंच भगवान दास देवासे के अनुसार ग्राम के लोगो की आस्था के केन्द्र बने इस चम्पा के पेड से लगे माता मंदिर का चबुतरा भी बनाया जाना है जिसके लिए गांव के ही मूल निवासी सेवानिवृत वनपाल मेरे बाबूजी श्री दयाराम पंवार द्वारा गांव के अपने पैतृक मकान की भूमि माता माँ के मंदिर व चबुतरे के लिए दान में दी है। आज उस स्थान पर गांव की रक्षक माता रानी का भव्य मंदिर बन चुका हैै। मंदिर के निमार्ण कार्य में इस बात का विशेष तौर पर ध्यान रखा गया है कि माता रानी के ऊपर बरसने वाले चम्पा के फूल् बरसे जिसके लिए मंदिर को पेड की गुलाई के हिसाब से बनवाया गया है। मंदिर का काफी ऊपरी भाग को छोडऩे के पीछे चम्पा के फूलो का साल भर माता रानी पर बरसते रहने का रास्ता है। लोगो की आस्था का एवं विश्वास का केन्द्र बने चम्पा के पेड के प्रति पूरे गांव का प्रेम ही उसकी सुरक्षा करेगा। अब गांव का कोई भी व्यक्ति उस पेड को काटने या उसकी डाली को छाटने की बात नहीं करता। मेरे अपने गृह ग्राम रोंढ़ा के चम्पा के पेड़ की उम्र के बारे में जयवंती हक्सर महाविद्यालय के वनस्पति शास्त्र के प्रोफेसर कहते है कि यह वास्तव में अजरज वाली बात है क्योकि चम्पा के पेड़ की आयु इतनी अधिक नहीं होती जितनी बताई जा रही हे। उनके अनुसार पेड़ को माता रानी पर प्रतिदिन चढ़ाया जाने वाला पानी एवं वहां की जमीन से पौष्टिक आहार मल रहा होगा जिसके चलते वह अपनी आयु को दिन प्रतिदिन बढ़ाता चला जा रहा है.
            बैतूल जिले के छोटे से सर्वोदयी गांव रहे रोंढा में संत टुकडो जी महाराज एवं भूदान आन्दोलन के प्रणेता संत विनोबा भावे के कभी पांव पडे थे। बैतूल जिले के इस ग्राम पंचायत रोंढा के उस सौ साल से अधिक उम्र के चम्पा के पेड को देखने के लिए लोग दूर - दूर से आते रहते है। वैसे भी जब - जब चमेली के फूलो की बाते चलेगी तो चम्पा के फूलो का जिक्र होना स्वभाविक है क्योकि चम्पा के पेड के तीन गुण विशेष है पहला रंग - दुसरा रूप - तीसरा यह कि इस फूल की सुगंध नहीं आती है। इस फूल पर कभी भवंरा नही मडराता। गांव के लोगो के अनुसार गांव में चम्पा का एक मात्र पेड है जो कि अपनी उम्र के सौ साल पूरे कर चुका है। पेडो से इंसान का रिश्ता नकारा नहीं जा सकता। आज शायद यही कारण है कि लोगो की आस्था एवं विश्वास  तथा श्रद्धा के इस त्रिवेणी संगम कहे जाने वाले पेड में कड़वी नीम के पेड की एक नई फसल उगने के बाद पेड बनती जा रही है इसके बाद भी कड़वी नीम की कड़वाहट इस चम्पा के पेड के फूलों में न आने वाली सुगंध में पर कोई असर कर पाई है। बैतूल जिले के ग्राम रोंढा के इस चम्पा के पेड़ के लिए अपना पैतृक खण्डहर हो चुके मकान के ध्वस्त हो जाने के बाद भी उस स्थान पर कोई मकान आदि का निमार्ण न करने मेरे बाबू जी ने अपनी तीस साल की सेवा में अनेको पौधो को रोपित किया। उन्होने कई नर्सरी से लेेकर वन विभाग की वन रोपिणी के पौधो को वितरीत करते समय ही इस बात को मन में ठान ली थी कि अब जरूरत है कि वनो की नहीं पेड़ - पौधो की रक्षा एवं सुरक्षा के प्रति आम इंसान को जोड़े। इसके लिए सबसे बड़ा माध्यम है कि लोगो को प्रेरित करे कि वह अपने घर के आंगन में कम से कम एक पौधा का रोपित कर उसे पाल पोश कर पेड़ बनाये ताकि वह आसपास का वातावरण शुद्ध रख सके। घने जंगलो में तीस साल की नौकरी के बाद आज भी उनका वनो से और पेडो से प्रेम बरकरार है। बाबू जी ने पर्यावरण संरक्षण के लिए एवं माता रानी के चबुतरे के लिए अपनी स्वेच्छा भूमि दान करके  लोगो को एक संदेश देना चाहा है कि लोग इंच भर की जमीन के लिए एक दुसरे की जान के दुश्मन बने हुये है लेकिन उक्त जमीन को दान में देने से उनका गांव के प्रति प्यार और स्नेह और अधिक हो जायेगा। किसी ने कहाँ भी है कि जननी से बड़ी होती है जन्मभूमि ...... हो सकता है कि शायद अपने बच्चो के एवं अपने जन्म से जुड़े अपने गांव से अपना रिश्ता बरकरार रखने के लिए जो 30 साल तक वन विभाग में वनो की सुरक्षा का दायित्व निभाने के बाद उम्र के उस ठहराव पर बाब ूजी  का यह अभिनव प्रयास उन लोगो के लिए एक उदाहरण बनेगा जो कि अपने घरो - दुकानो - मकानो - सड़को और गलियों के नाम पर हरे - भरे पेड़ो को बेरहमी से काट डालते है। वैसे देखा जाये तो हमारा पूरा गांव आसपास के खेतो में लगे हरे भरे पेड़ो से घिरा हुआ है। गांव के को चारो ओर से खेत और खलिहानो से बंधे रहने के कारण गांव का विस्तार नहीं हो सका। आज यही कारण है कि मेरे अपने गांव के अधिकांश लोग बढ़ते परिवार में छोटे मकानो से छुटकारा पाने के लिए अब खेतो में ही अपना आशियाना बना चुके है। गांव की अमराई और गांव के पनघट आज भले ही पानी की कमी के कारण कुछ मुरझाये हुये से दिखाई पड़ रहे है लेकिन इन्ही अमराई में बहुंत समय बीता चुके हम उम्र के लोग आज भी अपने बचपन को नहीं भूल सके है। गांव की सकरी हो चुकी गलियो के बाद भी गांव तो हमारा आज भी बेमिसाल है क्योकि इस गांव में जन्मा व्यक्ति गांव - शहर - जिला - प्रदेश यहां तक कि विदेशो में भी बसने के बाद अपने गांव को नहीं भूले है। मेरे गांव का मेरा बचपन का साथी कुंजू आज भले ही सौसर के केन्द्रीय विद्यालय में संगीत शिक्षक है लेकिन उसके तबले की थाप और हारमोनियम की धुन आज भी मेरे कानो में सुनाई पड़ती है। हर इंसान को चंाद को छुने के बाद भी अपने गांव को नहीं भूलना चाहिये। मेरे एक  पत्रकार मित्र ने मुझसे मेरे गांव के प्रेम के बारे में कुछ चुटकी इस प्रकार ली कि  ''आज गांव न होता तो गंवार होता , बता ऐसे में तू कैसे रामकिशोर पंवार होता ....ÓÓ! उसके कहने का अभिप्राय: कुछ इस प्रकार था कि व्यक्ति की पहचान कहीं न कहीं उसके गांव से होती है। मैं जब भी अपने गांव - शहर - जिले से बाहर रहता हँू तो अपनी पहचान अपने गांव से और अपनी पूण्य सलिला मां ताप्ती से करता हँू। मेरे एक मित्र आलोक इंदौरिया भी मेरे इस प्रेम की वज़ह से अकसर मोबाइल वार्तालाप के बाद जय ताप्ती मैया कहना नहीं भूलते। हमें अपने साथ अपने से जुड़े सभी लोगो की पहचान करानी चाहिये। आज लोग कुछ भी कहे मेरे गांव के बारे में लेकिन यह बात को कटु सत्य है कि मध्यप्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री स्वर्गीय पंडित रविशंकर शुक्ल के दोनो बेटो विद्याचरण और श्यामाचरण शुक्ल दोनो का पूरा परिवार मेरे गांव को मिठठु मामा की वज़ह से ही जानता था। इस गांव के मिठठु डिगरसे बैतूल जिले के एक मात्र ऐसे व्यक्ति थे जिसे पूरा शुक्ल आवास में बिना रोक - टोक के आने - जाने की छुट थी साथ ही उनके परिवार की बहु से लेकर बेटे तथा नाती - पोते तक मामा कह कर ही पुकारते थे। हमारे गांव के मिठठु मामा जगत मामा थे और उनकी पहचान भी अपनी जन्म स्थली रोंढ़ा से जोड़ कर देखी जाती है। हर इंसान को चाहिये कि वह जीवन में ऐसा कुछ कर जाये कि लोग उसे बरसो याद करते रहे ठीक उसी तरह जैसे लोग आज चम्पा के पेड़ को याद करते है कि वह कितना पुराना एवं चमत्कारिक है।
इति,

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